लॉकडाउन को पूरे 2 महीने होने को हैं, पर अभी भी मजदूरों और प्रवासी लोगों की घर वापसी एक चिंता का विषय है। हमारी व्यवस्थाऐं इस कदर खोखली और मात्र कागजी हैं कि हमेशा जरूरत के समय दम तोड़ देती हैं। पिछले कुछ दिनों मे मजदूरों और प्रवासी लोगों की जो भी फ़ोटो और वीडियो सामने आ रहे हैं उससे यकीनन किसी का भी दिल पसीज जाए। पर सरकार, नौकरशाह, मीडिया और समाज के संपन्न वर्ग तो बहुत निष्ठुर होता है भला उसे किसी की तकलीफ कहाँ महसूस होगी।
तमाम राज्य सरकारें, केंद्र और उसके संबंधित मंत्रालय, NGO, मीडिया और हर संपन्न परिवार/व्यक्ति के साथ-साथ हमारा पूरा समाज इन बेबस और लाचार लोगों के जख्मों पर मरहम लगाने मे नाकाम रहा। यह बात अपना जगह सही है कि अनेक स्तर पर कई कोशिशें की गयी, पर वो प्रयाप्त नहीं था। समस्या बड़ी विकट है कुछ और भी करने की जरूरत थी, जिससे मजदूरों और प्रवासी लोगों के घर वापसी को सुगम बनाया जा सकता था।
शुरुआती दौर मे दिल्ली के आनंद विहार की भीड़ हो या मुंबई के बांद्रा स्टेशन की या फिर कल उत्तर प्रदेश का दर्दनाक सड़क हादसा… इस तरह की तमाम घटनाएं हमारी सुस्त सरकारी सिस्टम की परिचायक हैं।
तमाम सरकारों ने अपनी-अपनी पुख्ता व्यवस्थाओं के दावे किये, किंतु कितने सही थे कितने गलत ये नहीं पता। वैसे भी अक्सर सरकारें ना जाने किस- किस बात को दावे के साथ कह जाती हैं। पर अभी स्थिति युद्धकाल के समान है, सब कुछ सरकारों के भरोसे नहीं छोड़ सकते। हर एक देशवासी की भूमिका बहुत अहम है।
मजदूरों और प्रवासी लोगों के विषय मे तमाम सरकारों के साथ हम सब भी असफल हुए है। ज्यादातर लोगों ने जो भी मदद करी वो उस की करी जो घर पर मदद माँगने आया या फ़िर कोई ऑनलाइन डोनेशन। जबकि जरूरत इन लोगों के पास जाने की थी। अगर हम ऐसे जरूरतमंद लोगों के पास जाकर उनका हाल-चाल जानते, उनकी स्तिथि को समझते और फ़िर उनकी कुछ मदद करते तो यकिनन इस मानवीय संवेदना से इन मजदूरों को एक हिम्मत भी मिलती और यह भी अहसास होता की पूरा समाज उनके साथ है तो कदाचित् वो इस तरह से अपने गाँव की ओर पलायन ना करते। पर अफसोस कि ऐसा ना हो सका.
लेख़क: नवीन चंद्र ‘तरोड़िया’। लेख़क के विचार व्यक्तिगत हैं।