सैद्धांतिक वो कानूनी दृष्टिकोण से बिहार में शराब का व्यापार, बिक्री एवं सेवन पूर्ण रूप से “बिहार मद्य निषेध और उत्पाद अधिनियम 2016″ के अंतर्गत अवैध माना गया है, जिसका विस्तार सम्पूर्ण बिहार राज्य में है। उपरोक्त अधिनियम की “धारा 37″ में यह प्रावधान है कि शराब पीकर और नशे की स्थिति में किसी स्थान पर हिंसा–उपद्रव करना भी अपराध है, शराब के नशे में व्यक्ति अपने घर या फिर परिसर में ही क्यों न हिंसा–उपद्रव करें वह भी अपराध की श्रेणी में रखा गया है। राज्य के मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार ने भी यह इंगित किया था कि शराबबंदी कानून का प्रभावकारी ढंग से पालन हो, इसके किसी अंश का दुरुपयोग न हो जिससे कि बिहार में “नशामुक्त समाज“ का निर्माण हो पाए।
दुर्भाग्यवश, ‘व्यवहारिक दृष्टिकोण‘ में इसकी जमीनी–हकीकत भिन्न–भिन्न देखने को मिल रही है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि राज्य के कई इलाकों में शराबबंदी (मद्य निषेध) की वजह से कई सकारात्मक बदलाव आए हैं लेकिन इसके साथ काफी कुछ ऐसा भी है, जिसका राज्य की सेहत पर विपरीत प्रभाव भी पड़ा है। राज्य सरकार भले ही ‘पूर्ण शराबबंदी‘ की वकालत और इसे प्रभावी रूप से लागू करने की बात कह रही हो, लेकिन समय–समय पर ऐसे कई मामले सामने आते रहे हैं, जिससे राज्य सरकार की शराबबंदी कानून को लेकर ‘विफलता‘ जगजाहिर होती है।
उदाहरण के लिए, अक्टूबर, 2018 में बिहार से एक बार फिर ऐसी खबर सामने आयी, जिससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि “शराब–नशीली पदार्थों“ के तस्करों के पैर कितनी मजबूती से समाज में जमे हुए हैं। इसी दौरान बिहार के गया जिले में “उत्पाद शुल्क विभाग” (एक्साइज डिपार्टमेंट) ने करीब “100 कार्टून शराब“ ले जा रही “एटीएम कैश वैन“ को जब्त किया था। इतना ही नहीं, ‘कैमूर जिले‘ की एक गोदाम में रखी गई ‘बीयर‘ की लगभग ‘200 केन‘ भी गायब होने की खबर सामने आयी थी और अधिकारियों ने इसके लिए ‘चूहों‘ को जिम्मेदार ठहरा दिया था। लेकिन जब इसकी पर्याप्त जांच की गई तो स्थानीय गोदाम में रखे गए जब्त बीयर की केन को नष्ट किये जाने के समय प्लास्टिक से सील केन जगह–जगह पर कटा हुआ मिला था। उपरोक्त खबर अब दिन–प्रतिदिन देखने को मिल रही है जोकि सरकारी तंत्र की विफलता का सूचक और सामाजिक दृष्टि से बेहद शर्मनाक प्रतीत होती है।
हालाँकि, राज्य के मुख्यमंत्री ने 11 जुलाई, 2018 को ‘बिहार कैबिनेट‘ में शराबबंदी कानून में आमूल–चूल बदलाव (संसोधित विधेयक) का प्रस्ताव पास किये। जबकि संसोधित विधेयक से पूर्व शराब पीते हुए व्यक्ति के पकड़े जाने पर ‘दस वर्ष‘ जेल की सजा होती थी और यदि किसी व्यक्ति के पास से शराब ‘पहली बार‘ बरामद होती तो वह भी ‘पचास हज़ार‘ जुर्माना देकर बच सकता था। इन दोनों मामलों ही में जुर्माना नहीं देने की स्थिति में आरोपी व्यक्ति को ‘तीन महीने‘ तक जेल की सजा का प्रावधान रखा गया था। गौरतलब है कि संसोधित विधेयक के अंतर्गत अगर कोई व्यक्ति ‘दूसरी बार‘ शराब पीते पकड़ा जाता है या फिर उसके पास से शराब बरामद होती है तो उसे ‘पांच वर्ष‘ की सजा तथा ‘एक लाख‘ जुर्माना लगाया जाएगा।
पूर्व–शराबबंदी कानून में इस बात का भी प्रावधान रखा गया था कि यदि किसी के घर–गाड़ी से शराब बरामद होती है तो पुलिस घर और गाड़ी दोनों को जब्त कर सकती थी, लेकिन प्रस्तावित बदलाव (संसोधित विधेयक) में घर या गाड़ी से शराब बरामद होने की स्थिति में घर या गाड़ी को जब्त नहीं किये जाने का प्रावधान है। संक्षेप में, संसोधित विधेयक में शराबबंदी कानून का उल्लंघन करने वालों के लिए मौजूदा सजा के प्रावधान में बदलाव कर उसे ‘कम‘ किए जाने की वकालत की गई है। इस संशोधन में बिहार मद्यनिषेध और उत्पाद अधिनियम, 2016 की “धारा-64″ को ‘विलोपित‘ कर दिया गया है। इस धारा में, गांव पर “सामूहिक जुर्माने” का प्रावधान था। ठीक इसी तरह, “धारा-66″ को भी संशोधन में ‘विलोपित‘ कर दिया गया है। जिसमें “कुख्यात अथवा आदतन अपराधियों के निष्कासन की तर्ज पर नशेबाजों को शहर से बाहर किए जाने का प्रावधान था“।
उपरोक्त कथनो के विस्तृत अध्ययन से यह भी आंका जा सकता है कि ‘बिहार मद्य निषेध और उत्पाद अधिनियम 2016′ में तथाकथित बदलाव कंही न कंही इसकी क़ानूनी मान्यता को कमजोर कर रही है, जिसके परिणामस्वरूप इसके ‘सिद्धांत और व्यवहार‘ में काफी अंतर देखने को मिल रहा है। कुछ राजनीतिक टीकाकारों का मानना है कि यह ग्रामीण क्षेत्रों में सिर्फ ‘वोट–बैंक‘ की राजनीति बन कर सिमट गयी है जिसका प्रभाव बहुआयामी है; सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक है।। सूत्रों के हवाले से यह भी खबर मिल रही है की शराबबंदी के परिणामस्वरूप अन्य राज्यों–देशों को अवैध रूप से आर्थिक फायदा हो रहा है जिसमें बंगाल और नेपाल अग्रणी है। ये राज्य–देश बिहार में अवैध तस्करी और नकली शराब को बढ़ावा दे रही है और अन्य नशीली पदार्थों को ‘चार गुणा‘ ज्यादा मूल्य पर बेचा जा रहा है।
वर्तमान शोध यह दर्शाता है कि राज्य में अवैध तस्करी को कम लागत और ज्यादा मुनाफा वाला धंधा समझा जाने लगा है क्योंकि वर्तमान में यहां शराब को मनमानी कीमत पर क्रय–विक्रय किया जा रहा है। पड़ोसी राज्यों (बंगाल) और नेपाल के साथ खुली सीमा होने की वजह से शराब वो अन्य नशीली पदार्थों के तस्करों को ज्यादा परेशानी भी नहीं उठानी पड़ती है। राज्यों की सीमा पर तैनात पुलिसकर्मियों से बचने के लिए शराब तस्कर मुख्य रास्ते की बजाय गांव की सड़कों से होकर आते–जाते हैं। परिणामस्वरूप, बंगाल और नेपाल के माफिया–तस्करों को आर्थिक लाभ हुआ है, और बिहार को सामाजिक–आर्धिक–राजनीतिक नुकसान हुआ है। अन्य शब्दों में, राज्य में पूर्ण शराबबंदी लागू होने के बाद कई नए अवैध धंधे–व्यापार शुरु हो गए हैं, और राजस्व घाटे की पूर्ति हेतू जनता पर महंगाई का बोझ भी डाला जा रहा है।
पूर्ण शराबबंदी के लागू होने के बाद राज्य में पर्यटकों की संख्या में लगातार कमी दर्ज की गयी। राज्य सरकार के पर्यटन निदेशालय से उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2015 की तुलना में जून और जुलाई (2016) में पर्यटकों की संख्या में 21 लाख की कमी दर्ज की गयी। इससे राज्य सरकार को राजस्व का नुकसान उठाना पड़ा है, बल्कि पर्यटकों पर निर्भर रहने वाले होटल व्यवसायी और छोटे–मोटे रोजगार करने वाले भी प्रभावित हुए हैं।
विभिन्न अध्ययन–शोध यह दर्शाता है कि “मद्य निषेध नीति” को प्रभावी ढंग से लागू करने हेतु उत्पाद विभाग के अन्वेषन को और ज्यादा मजबूत करने की आवश्यकता महसूस की जा रही है। इसी कदम को ध्यान में रखते हुए राज्य सरकार ने बिहार उत्पाद (संशोधन) अधिनियम, 2016 पारित किया, लेकिन यह अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने में जमीनी स्तर पर (व्यवहार में) प्रभावी नहीं हो पा रही, जोकि राज्य सरकार द्वारा सम्बंधित नीतियों पर प्रश्नचिन्ह लगाती है। हालाँकि, यह बिहार विधान मंडल के दोनों सदनों से पारित है और इसे राज्यपाल का अनुमोदन भी प्राप्त है। महत्वपूर्ण रूप से, स्मृति और पुराणों में शराब को बहुत बड़ा ‘पाप‘ के रूप में इंगित किया गया है। महात्मा बुद्ध और महात्मा गाँधी आदि जैसे लोगों ने भी इसका विरोध किये हैं और इसे सामाजिक कुरीति के रूप में चिन्हित किये हैं। हमारे संविधान के भाग 4 की 47 वीं धारा के अंतर्गत भी शराब का विरोध किया है।
संसार के कई हिस्सों में मद्य निषेध को लागू किए जाने के बाद का अनुभव यह है कि इससे चलने वाली अर्थव्यव्यस्था अंडरग्राउंड हो जाती है। बिहार में भी कुछ ऐसा ही प्रतीत हो रहा है, तथा राज्य में जहरीली शराब पीने की वजह से सैकड़ों लोगों की मृत्यु की खबर सामने आयी है। अतः अवैध तश्करी को रोकने हेतु केंद्र और राज्य सरकारों को सामूहिक रूप से मजबूत कदम उठाने की जरूरत है। सौभाग्य से इस ‘मद्य निषेध‘ अभियान में आज समाज और सरकार कंही न कंही सहयोग दे रही है।
अतः हमारी “सामूहिक जिम्मेदारी” है कि ‘मद्य निषेध‘ अभियान के प्रति जमीनी स्तर पर जागरूकता और सामाजिक चेतना का विकास करें साथ ही विभिन्न स्कूल–कॉलेज–पंचायत–गावं–कस्बा आदि जैसे जगहों पर इस अभियान के प्रति चेतना लाएं। इसके अलावे अगर जरूरत हो तो कानून में भी संसोधन हों, तथा सरकारी तंत्र–व्यवस्था की भी यह जवाबदेही सुनिश्चित हो कि वे इसे समय–समय पर मॉनिटर करें जिससे कि इस अभियान को मजबूती मिल सके, और बिहार में जमीनी स्तर पर “नशामुक्त समाज” का निर्माण हो पाये, और दूसरे राज्य भी इस नशामुक्त समाज से भविष्य में प्रेरणा लें पायें। अगर ऐसा नहीं हो पाता है तोह–दिन प्रतिदिन बिहार मद्यनिषेध के सिद्धांत और व्यवहार में अंतर बढ़ता जायेगा और यह केवल वोट–बैंक जैसी संकुचित अवधारणा में सिमट कर रह जाएगी जिससे तश्करी को बल मिलेगा।।।
लेखक: त्रिलोक सिंह, स्नातकोत्तर, राजनीतिक विज्ञान, किरोड़ी मल कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय। सीईओ/संस्थापक, यूथ दर्पण (इंग्लिश मीडिया) और आईएसमाइंड.कॉम।