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November 13, 2024
विचार

प्रेस की आजादी और लोकतांत्रिक मूल्यों का सवाल

हाल ही में पेरिस स्थित गैर सरकारी संस्था रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स ने विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक 2020 जारी किया है। दुनिया भर में प्रेस की आजादी पर नजर रखने वाली संस्था ने भारत में प्रेस की आजादी पर चिंता जाहिर की है। दरअसल पिछले कई सालों से भारत को रैंकिंग में नुकसान हो रहा है,180 देशों और क्षेत्रों के सूचकांक में भारत को 142वां स्थान हासिल हुआ है।

जबकि 2019 में भारत 140 में पायदान पर था 2014 में 140 में पायदान पर होने के बाद 2015 और 2016 में भारत की रैंकिंग सुधरी जरूर थी लेकिन 2017 से भारत की रैंकिंग में गिरावट का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा दूसरे शब्दों में कहें तो लोकतंत्र का चौथा स्तंभ लगातार कमजोर होता दिख रहा है।

ऐसे में सबसे बड़ा सवाल है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में मीडिया का लगातार कमजोर होना दुरुस्त नहीं है। सवाल है कि एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में अगर मीडिया अपने दायित्वों का निर्वहन नहीं कर पाएगा तो हमारा लोकतंत्र सफल कैसे हो सकेगा न केवल लोकतंत्र बल्कि समाज के प्रति जिम्मेदारियां हैं ऐसे में उसके कमजोर होने से सामाजिक प्रगति की प्रक्रिया भी बाधित होगी।

यह जानना समझना भी जरूरी है कि मीडिया को कमजोर करने वाली ताकतें कौन हैं कहीं ऐसा तो नहीं कि मीडिया की गिरती स्थिति के लिए खुद मीडिया ही जिम्मेदार है वजह चाहे जो भी हो लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि मीडिया के कमजोर होने से राष्ट्र निर्माण कहीं पीछे छूटता नजर आ रहा है और यह एक लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए यह शुभ संकेत नहीं है।

सवाल है कि क्या देश में संवैधानिक नैतिकता की जड़ें कमजोर हो गई हैं या फिर प्रजातांत्रिक मूल्यों का अभाव है। आइए कुछ ऐसे ही पहलुओं पर बात करते हैं। सबसे पहले रिपोर्ट की मुख्य बातों पर एक नजर डालते हैं। दुनियाभर में प्रेस की आजादी का दस्तावेज करने वाली संस्था। रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स 2002 से ही सालाना यह सूचकांक जारी कर रही है। इसका मकसद दुनिया के विभिन्न देशों में अभिव्यक्ति की आजादी का पता लगाना और मीडिया को सचेत करना है।

प्रेस की आजादी को बताने के लिए कई मापदंडों पर परखा जाता है। यह सूचकांक बहुलवाद का स्तर मीडिया की आजादी मीडिया के लिए वातावरण और स्वयं संसद कानूनी ढांचे और पारदर्शिता के साथ समाचार और सूचना के लिए मौजूद बुनियादी ढांचे की गुणवत्ता के आकलन के आधार पर तैयार किया जाता है। पिछले कई सालों की तरह नॉर्वे एक बार फिर से इस सूचकांक में पहले पायदान पर जगह बनाने में कामयाब रहा है।

रैंकिंग में आखरी यानी 180 वें स्थान पर उत्तर कोरिया को रखा गया है। पिछले साल के मुकाबले उत्तर कोरिया को एक पायदान का नुकसान हुआ है। इस रैंकिंग में फिनलैंड को दूसरे डेनमार्क को तीसरे स्वीडन को चौथे नीदरलैंड को पांचवे स्थान पर जगह मिली है। भारत के पड़ोसी देशों के बात करें तो भूटान को 67वाँ नेपाल को 112 वाँ अफगानिस्तान को 122वाँ, म्यामार को 139वाँ पाकिस्तान को 145 वाँ बांग्लादेश को 151वाँ और चीन को 177 वाँ स्थान प्राप्त हुआ है।

रिपोर्ट के मुताबिक 180 देशों में 8 फीसदी देश ऐसे हैं जहां प्रेस की स्थिति अच्छी है। गौरतलब है कि पिछले साल भी यह आंकड़ा 8 फीसद ही था इसी तरह 35 देशों को समस्या ग्रस्त स्थिति वाली कैटेगरी में रखा गया है। जबकि 26 देशों में स्थिति को कठिन बताया गया है। 13 देशों में प्रेस की स्थिति को बेहद गंभीर बताया गया है और इस मामले में पिछले साल के मुकाबले 2 फीसद का इजाफा हुआ है।

जैसा कि हमने पहले ही जिक्र किया कि भारत को दो स्थानों के नुकसान के साथ एक सौ बयालीस वां स्थान प्राप्त हुआ है।रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2018 में भारत में 6 पत्रकारों की हत्या कर दी गई थी लेकिन 2019 में किसी भी पत्रकार की हत्या दर्ज नहीं हुई है और इस तरह देश की मीडिया के लिए सुरक्षा स्थिति में सुधार नजर आया लेकिन दूसरी तरफ रिपोर्ट इस बात का भी जिक्र करती है कि 2019 में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर कश्मीर के इतिहास का सबसे लंबा अंकुश लगाया गया था।

रिपोर्ट के अनुसार देश में लगातार प्रेस की आजादी का उल्लंघन हुआ यहां पत्रकारों के खिलाफ पुलिस ने भी हिंसात्मक कार्यवाही की राजनीतिक कार्यकर्ताओं पर हमले हुए और साथ ही आपराधिक समूह व भ्रष्ट अधिकारियों द्वारा विद्रोह भड़काने का काम किया गया। अब सवाल है कि प्रेस की आजादी क्यों जरूरी है? प्रेस की आजादी का मतलब है कि व्यक्ति को अपनी राय कायम करने और सार्वजनिक तौर पर इसे जाहिर करने का पूरा अधिकार है।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19-1A में अभिव्यक्ति की आजादी का जिक्र है। प्रेस को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ यूं ही नहीं कहा जाता। अधिक रहे प्रेस को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ यूं ही नहीं कहा जाता लोकतांत्रिक मूल्यों को सहेजने में प्रेस की बड़ी भूमिका होती है। हालांकि या लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था का अंग नहीं है। लेकिन इसके बावजूद विधायिका कार्यपालिका और न्यायपालिका के बाद इसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ इसलिए कहा जाता है। क्योंकि यह तीनों ही अंगों पर नजर रखती है और समय-समय पर नागरिकों को सचेत करती रहती है।

दूसरे शब्दों में कहें तो प्रेस इन तीनों ही अंगों को जोड़ने का काम करती है। प्रेस की आजादी का ही नतीजा है कि विधायिका कार्यपालिका और न्यायपालिका को मजबूती के साथ जनता की भावना को अभिव्यक्त करने का मौका मिलता है कहा जाता है कि प्रेस किसी भी समाज का आईना होता है और एक लोकतांत्रिक देश में प्रेस की आजादी एक बुनियादी जरूरत है। यह जनता को जागरूक शिक्षित और प्रगतिवादी बनाता है।

इससे हमारा समाज तो बेहतर होता ही है साथ ही लोकतंत्र में एक बेहतर जनमत भी तैयार होता है। इसी से राष्ट्र निर्माण का मार्ग प्रशस्त होता है जिसके जरिए देश दुनिया में घटित होने वाली गतिविधियों से लोग अवगत होते हैं ऐसे व्यक्ति के अंदर तरह-तरह के विचार विकसित होते हैं सरकार और नागरिकों के बीच संचार के माध्यम के रूप में कार्य करता है। मीडिया नागरिकों को सार्वजनिक विषयों के संदर्भ में सूचित करता है और सभी स्तरों पर सरकार के कार्यो की निगरानी करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है।

अब ये जानना जरूरी हो जाता है कि प्रेस की आजादी में आ रही कमी के मूल कारण क्या है? रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स के मुताबिक वैश्विक स्तर पर पत्रकारों की हत्या की घटनाएं लगातार सामने आ रही हैं। इससे अभिव्यक्ति की आजादी का स्तर दिनों दिन गिरता जा रहा है। रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स ने शत्रुता और घृणा के कारण मीडिया जगत में बढ़ते संकट की तरफ इशारा किया है। पत्रकारों के बीच एक अभूतपूर्व को लेकर चिंता जाहिर की है।

रिपोर्ट की मानें तो दुनिया के बड़े राजनेता और उनके करीबी पत्रकारों के साथ खुलेआम घृणा कर रहे हैं। रिपोर्ट में भारत में भी पत्रकारों की स्थिति पर चिंता जताई है। अधिकारियों की आलोचना करने पर पत्रकारों के खिलाफ आपराधिक धाराओं के प्रयोग पर रिपोर्ट ने चिंता जताई है। जाहिर है सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि पत्रकारों की हत्या की वजह उनके पेशेवर रिपोर्टिंग है। कि पत्रकारों की हत्या की वजह उनके पेशेवर रिपोर्टिंग है ऐसे में पत्रकारों में डर का माहौल होने से उनके रिपोर्टिंग पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ना तय है।

इससे जहां खोजी पत्रकारिता की भावना खत्म होती है वह डर के वातावरण के कारण सच को छुपाने का प्रयास भी किया जाता है। लिहाजा मुख्यधारा की मीडिया में स्वयं ही अपने ऊपर सेंसरशिप लगाने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। वजह चाहे जो भी हो लेकिन हाल के दिनों में मीडिया पर ईमानदारी से रिपोर्टिंग न करने के आरोप लगाते रहे हैं। इसे जरूरी मुद्दों की बजाय गैर जरूरी मुद्दों पर बात करने की मीडिया की प्रवृत्ति के रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा है। मीडिया पर जन सरोकार के मुद्दों को प्रकाश में लाने के बजाय सरकार का पक्ष लेने के भी आरोप लगते रहे हैं।

इसलिए संभव है कि सरकारी तंत्र के दबाव में होने की वजह से मीडिया का यह स्वरूप सामने आ रहा हो। बुनियादी ढांचे की बात करें तो इसकी गुणवत्ता में भारी कमी देखी जा रही है। खबरों की रिपोर्टिंग करने के लिए जिन संसाधनों की जरूरत होती है। उन्हें पत्रकारों को मुहैया न कराया जाना एक बड़ी समस्या है। रिपोर्ट का मानना है कि डिजिटल परिवर्तन ने कई देशों में मीडिया को अपने घुटनों पर ला दिया है। अखबारों की गिरती बिक्री विज्ञापन राजस्व में गिरावट कच्चे माल की कीमत में वृद्धि और उत्पादन व वितरण लागत में वृद्धि ने समाचार संगठनों को पत्रकारों के पुनर्गठन के लिए मजबूर किया है।

गार्जियन टाइम और इंडिपेंडेंट जैसे अखबार 2 पाउंड यानी लगभग ₹180 में बिकते हैं। लेकिन भारत में पाठक अखबार के लिए बहुत अधिक कीमत अदा करने के लिए तैयार नहीं होते जबकि एक अखबार को तैयार करने में 20 से ₹25 की लागत आती है। दुनिया में शायद यह एकमात्र उत्पाद है जो अपनी लागत से कहीं कम मूल्य पर बिकता है। क्योंकि आपने सामाजिक परिणाम हैं और दुनिया भर के मीडिया के संपादकीय स्वतंत्रता पर इसका प्रभाव पड़ता है।

क्योंकि बहुत कमजोर आर्थिक स्थिति वाले अखबार सरकारी दबाव का विरोध करने में स्वाभाविक रूप से ज्यादा सक्षम नहीं होते यही कारण है कि ज्यादातर मीडिया हाउस की कमान अब उद्योगपतियों के हाथों में चले जाने से सच्ची पत्रकारिता के बजाय अधिक से अधिक मुनाफा कमाना प्रेस की प्राथमिकता हो गई है और यह लोकतंत्र की विडंबना है कि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ आज पूंजीपतियों का हिमायती बनता दिख रहा है।

फिर सवाल है कि प्रेस की आजादी के लिए हमारी क्या तैयारियां हो हम सभी जानते हैं कि भारत की आजादी में प्रेस की भूमिका थी प्रेस के प्रयासों से ही देश भर में जागरूकता और ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक माहौल तैयार हो सका। उसने बहुत ही जिम्मेदारी के साथ जनता की आवाज बुलंद की और यह सब कुछ बिना किसी भय और लालच के किया गया।

महात्मा गांधी से लेकर लोकमान्य तिलक लाला लाजपत राय, डॉ राजेंद्र प्रसाद आदि का नाम बहुत सम्मान से लेते हैं। इन लोगों ने अपनी लेखनी के जरिए देशवासियों में आजादी के आंदोलन का जज्बा जगाया था दूसरे शब्दों में कहें तो प्रेस ने अगर जुल्म के खिलाफ आवाज आवाज नहीं उठाया होता तो आज भी हम गुलाम होते। लेकिन अब मानो यह प्रतीत होता है कि हम तो आजाद हो गए लेकिन हमारी मीडिया अब भी गुलाम है। गुलाम है सरकारों की गुलाम है उद्योगपतियों की। अब देखना यह होगा कि आने वाले दिनों में इसकी साख और कितनी कमजोर होती है।

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