सार्थक कुमार(मधेपूरा)
महंगाई ने गृहिणियों के ही पसीने नहीं उतारे अब इसके कारण भाषाविदों को भी मुहावरों के प्रयोग में पसीने छलकने लगे हैं । अगर आप बात-बात में कौडि़यों के मोल बिकने की बात करते हैं यानि अगर ये आपका तकिया कलाम है तो इसे भूल जाईये । कौड़ी भी अब उस भाव में नहीं मिलती जिसके लिए यह व्याकरण में मुहावरा और आपका तकिया कलाम बन गया है।
ये निगोड़ी महंगाई जो न करे । पहले तो इसने लोगों के पसीन उतारे अब व्याकरण की मिट्टी पलीद करने पर उतरा है। जहां अब आम लोगों को मुहावरों के प्रयोग में सावधानी बरतनी पड़ रही है वहीं कारोबारियों पर आज भी सटीक है।
द्वंद्व समास का एक उदाहरण है पैसा-कोड़ी । जिसमें दोनों पद प्रधान हैं । एक समय था जब मुद्रा का प्रचलन नहीं था तो उस समय कौड़ी के माघ्यम से विनिमय किया जाता था। यानी कौड़ी के द्धारा वस्तुओं की खरीद बिक्री होती थी । आज भी पुराने जमाने के लोग एक कौड़ी का मतलब बीस से लगाते हैं । समय बदला मुद्रा का प्रचलन हुआ और कौड़ी बच्चों के खेलने के काम आने लगा । लोग तबसे सस्ती चीजों के संबंध में कौडि़यों के मोल बिकने की बात करने लगे और व्याकरण ने भी इसे मुहाबरे के रूप में स्वीकार कर लिया । कई मुहाबरे इसी तरह अस्तित्व में आए होंगे । जबकि हकीकत यह है कि यह आज भी काफी महंगे दामों में बिकती है । इसके कई कारण हैं । आज भी जमीन की खरीद इसी कौडि़यों से होती है । यह अलग बात है कि यह खरीद उस समय होती है जब व्यक्ति का अंतिम संस्कार हो रहा होता है । आज भी अंतिम संस्कार के लिए भगवान से कौड़ी देकर ही जमीन खरीदी जाती है । बच्चे के जन्म के बाद छठि में भी कौड़ी काम आती है । सजावट के काम तो यह आती ही है आयुर्वेद के कई तरह की दवाओं में भी इसका उपयोग होता है । यही कारण है कि यह महंगे दामों में बिकती है । ऐसे में आसान नहीं है कौडि़यों के भाव बिकने की बातें । महंगाई के इस दौर में ‘आटे-दाल का भाव मालूम पड़ने ‘ की बात तो लोगों के समझ में आ जाती है लेकिन ‘घर की मुर्गी दाल बराबर ‘ को समझना कठिन हो रहा है । अरहड़ की दाल 70-72 रूपये किलो बिक रही है । बैंगन को ‘ थाली का बैंगन ‘ कहकर नीचा दिखाना कठिन हो रहा है । बीस रूपये किलो से नीचे तो सब्जी वाले बैठने भी नहीं देते । वैसे तो अभी पटुआ साग का समय नहीं है । नहीं तो स्थानीय कहावत ‘ बारिक पटुआ तीत ‘ कहना लोग भूल ही जाते । क्योंकि यह तो 40 रूपये किलो बिकता था । ‘ नीम चढ़े करेले ‘ की बात ही मत पूछिए । डाइबिटिज वाले दवा के तौर भले ही इसका इस्तेमाल कर रहे हो आम लोगों को तो इसे खाने के लिए सोचना पड़ रहा है । 35 रूपये प्रतिकिलों है इसके भाव । इसे ‘जले पर अगर नमक छिड़कना नहीं माने ‘ तो ‘ चना लोगों को नाकों चबाने ‘ के लिए मजबूर कर रहा है । 60-62 रूपये प्रतिकिलो बिकता है चना व काबूली चने का भाव 80 रूपये किलो है।
बहरहाल महंगाई ने घर का बजट बिगाड़ दिया है । मुहावरों और लोकोक्तियों के प्रयोग में लोगों को सावधानी बरतनी पड़ रही है । लोगों की माने तो कारोबारियों पर तो यह अब भी सटीक है । उनकी तो ‘ पांचों उंगलियां घी ‘ में है और वे ‘ घी के दिए जलाते ‘ हैं।